मैं जो हूँ मुझे रहने दे हवा के जैसे बहने दे, तन्हा सा मुसाफिर हूँ मुझे तन्हा ही तू रहने दे।
अकेलेपन से सीखी है, मगर बात सच्ची है, दिखावे की नजदीकयों से, हकीकत की दूरियाँ अच्छी है।
उसे पाना उसे खोना. उसी के हिज्र में रोना,यही गर इश्क है तो हम तन्हा ही अच्छे हैं
यूँ भी हुआ रात को जब सब सो गए, तन्हाई और मैं तेरी बातों में खो गए।
ए ज़िन्दगी एक बार तू नज़दीक आ तन्हा हूँ मैं, या दूर से फिर दे कोई सदा तन्हा हूँ मैं, दुनिया की महफ़िल मैं कहीं मैं हूँ भी या नहीं, एक उम्र से इस सोच में डूबा हुआ हूँ मैं
बहुत सोचा बहुत समझा बहुत ही देर तक परखा, कि तन्हा हो के जी लेना मोहब्बत से तो बेहतर है
अकेलेपन का भी अपना ही मज़ा है, जो न समझे इसे उसके लिए सजा है, अज़ीब सी तक़दीर लिखीं है मेरी खुदा ने, सफ़र ही सफ़र लिखा है हमसफ़र कोई नहीं।
अकेलेपन का दर्द भी अजीब होता है, दर्द तो होता है लेकिन दर्द के आँसू आँखों से बाहर नहीं आते ।
चलते-चलते अकेले अब थक गए हम, जो मंज़िल को जाये वो डगर चाहिए, तन्हाई का बोझ अब और उठता नहीं, अब हमको भी एक हमसफ़र चाहिए।